Education

भगवान बुद्ध के धम्म में शिक्षा व दीक्षा का बहुत बड़ा महत्त्व है, वैसे देखा जाय तो शिक्षा व दीक्षा एक दूसरे के पूरक है, शिक्षा उचित अनुचित शब्दों तथा अक्षरो के लिखने पढ़ने का ज्ञान कराता है, जबकि दीक्षा व्यवहारिक ज्ञान जैसे उठना, बैठना, चलना, बोलना, आचरणशील का बोध कराता है तथागत ने शिक्षा दीक्षा को एक सूत्र में पिरोकर एक नाम दिया, जिसे विद्या कहते है। पहले प्रत्येक क्षेत्र में कुल गुरु हुआ करते थे जो किताबी ज्ञान के साथ-साथ अन्य सभी कलाओं द्वारा बच्चों को तैयार किया करते थे, जिससे बच्चा जिस कला में निपुड़ हो ताथा गुरु उसे अपने कार्य कुशलता के द्वारा व सहज ढ़ंग से अपने पुत्र की भांति रचने गढ़ने बनाने का काम करते थे तभी तो शिष्य के अंदर गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव स्वयं से पैदा होता था और गुरु के आज्ञा का पालन व सेवा अपना धर्म समझता था।आज अपने अपने कर्तव्य और भाव के अभाव में गुरु शिष्य का यह अमर नाता टूटता चला जा रहा है। सारे रिश्ते बनावटी व दिखावटी हो गए, इस गुरु शिष्य परम्परा को पुनः जागृत कर बच्चो के अंदरतर्कपूर्ण वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान करना ट्रस्ट का उद्देश्य है।

In the Dhamma of Lord Buddha, education and initiation are of great importance, by the way, education and initiation are complementary to each other, education gives knowledge of reading and writing proper inappropriate words and letters, whereas initiation gives practical knowledge like getting up, sitting, Walking, speaking, conduct gives a sense of modesty, Tathagata gave a name to the initiation of education by tying it in a thread, which is called Vidya. Earlier, there used to be a total guru in every field, who used to prepare the children through bookish knowledge as well as all other arts, so that the art in which the child was mastered, the master through his work skill and easily like his son. The creations used to do the work of making constructions, only then a sense of gratitude towards the Guru was born in the disciple and he considered obeying and serving the Guru as his religion. Today, in the absence of one's own duty and feeling, this immortal relationship of Guru-disciple is getting broken. All the relationships have become artificial and ostentatious, by re-awakening this guru-shishya tradition, it is the aim of the trust to provide logical scientific education to the children.

Initiation

दीक्षा जीवन का महत्वपूर्ण अंग है| दीक्षा हमें विनयशील सदाचार आचरण सिखाता है|जिस मानव के अंदर विनयवशील नहीं वह मानव नहीं, पशु के समान है। इसलिए तथागत ने मनुष्य को त्रिशरण और पंचशील दिया, जो मानव मात्र के लिए नितांत आवश्यक है। जो मानव जाति-पाति पंथ मजहबो के झूठे अहंकार से दूर हो चुका है, वहशील, समाधि, प्रज्ञा को ग्रहण कर ज्ञान विज्ञान की दिशा में आगे बढ़कर लोग कल्याण का कार्य करता रहता है, ऐसे व्यक्ति जो धर्म परिवर्तन की बात करते है वह अविद्या के शिकार है, उन्हें पता ही नहीं कि मनुष्य की मनुष्यता ही उनका धर्म है।धर्म तो जीवन जीने की कला है अर्थात एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के लिए कैसे कल्याणकारी बने तथागत का पूरा का पूरा धर्म इसी पर खड़ा है। थोड़ा सोचा जाए तो दुःख-सुख, दर्द व मानवीय संवेदनाये जैसे आदिमानवमें था वैसे आज भी है, इतिहास बदलता है, व्यवस्था बदलती है, परिस्थितिया बदलती हैं लेकिन मानवीय संवेदनाये कभी नहीं बदलती यही धर्म है और यह कल्याणकारी पवित्र धर्म घर-घर में पहुंचे यही ट्रस्ट का यही उद्देश्य है।

।।।भवतु सब्ब मंगलं।।।

Initiation is an important part of life, initiation teaches us modesty and virtuous conduct. That is why Tathagata gave man Trisharan and Panchsheel, which is absolutely necessary for human beings. The human race, who has got away from the false ego of religions, by adopting modesty, samadhi, wisdom, keeps on doing the work of welfare of people by moving forward in the direction of science, such a person who talks about converting religion. They are victims of ignorance, they do not know that the humanity of man is their religion. Religion is the art of living life, that is, how does one person become welfare for another human being, the entire religion of Tathagata stands on this. If you think a little, then there is sorrow, happiness, pain and human feelings as it was in the original human being, it is still there today, history changes, system changes, circumstances change but human feelings never change, this is religion and this welfare holy religion from house to house. This is the purpose of this trust that I have reached.

| | |Bhavatu sab Mangalam | | |